Lekhika Ranchi

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मुंशी प्रेमचंद ः गबन


३८
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मगर नहीं, इन्होंने मुझसे चाल चली है, तो मैं भी इनसे वही चाल चलूंगा। कह दूंगा, अगर मुझे आज कोई अच्छी जगह मिल जाएगी, तो मैं शहादत दूंगा, वरना साफ कह दूंगा, इस मामले से मेरा कोई संबंध नहीं। नहीं तो पीछे से किसी छोटे-मोटे थाने में नायब दारोग़ा बनाकर भेज दें और वहां सडा करूं। लूंगा इंस्पेक्टरी और कल दस बजे मेरे पास नियुक्ति का परवाना आ जाना चाहिए।
वह चला कि इसी वक्त दारोग़ा से कह दूं, लेकिन फिर रूक गया। एक बार जालपा से मिलने के लिए उसके प्राण तड़प रहे थे। उसके प्रति इतना अनुराग, इतनी श्रद्धा उसे कभी न हुई थी, मानो वह कोई दैवी-शक्ति हो जिसे देवताओं ने उसकी रक्षा के लिए भेजा हो दस बज गए थे। रमानाथ ने बिजली गुल कर दी और बरामदे में आकर ज़ोर से किवाड़ बंद कर दिए, जिसमें पहरे वाले सिपाही को मालूम हो, अंदर से किवाड़ बंद करके सो रहे हैं। वह अंधेरे बरामदे में एक मिनट खडा रहा। तब आहिस्ता से उतरा और कांटेदार गेंसिंग के पास आकर सोचने लगा, उस पार कैसे जाऊं?' शायद अभी जालपा बग़ीचे में हो देवीदीन जरूर उसके साथ होगा। केवल यही तार उसकी राह रोके हुए था। उसे गांद जाना असंभव था। उसने तारों के बीच से होकर निकल जाने का निश्चय किया। अपने सब कपड़े समेट लिए और कांटों को बचाता हुआ सिर और कंधो को तार के बीच में डाला, पर न जाने कैसे कपड़े फंस गए। उसने हाथ से कपड़ों को छुडाना चाहा, तो आस्तीन कांटों में फंस गई। धोती भी उलझी हुई थी। बेचारा बडे संकट में पड़ा। न इस पार जा सकता था, न उस पारब ज़रा भी असावधानी हुई और कांटे उसकी देह में चुभ जाएंगे।
मगर इस वक्त उसे कपड़ों की परवा न थी। उसने गर्दन और आगे बढ़ाई और कपड़ों में लंबा चीरा लगाता उस पार निकल गया। सारे कपड़े तार-तार हो गए। पीठ में भी कुछ खरोंचे लगेऋ पर इस समय कोई बंदूक का निशाना बांधकर भी उसके सामने खडा हो जाता, तो भी वह पीछे न हटता। फटे हुए कुरते को उसने वहीं फेंक दिया, गले की चादर फट जाने पर भी काम दे सकती थी, उसे उसने ओढ़लिया, धोती समेट ली और बग़ीचे में घूमने लगा। सन्नाटा था। शायद रखवाला खटिक खाना खाने गया हुआ था। उसने दो-तीन बार धीरेधीरे जालपा का नाम लेकर पुकारा भी। किसी की आहट न मिली, पर निराशा होने पर भी मोह ने उसका गला न छोडा। उसने एक पेड़ के नीचे जाकर देखा। समझ गया, जालपा चली गई। वह उन्हीं पैरों देवीदीन के घर की ओर चला।
उसे ज़रा भी शोक न था। बला से किसी को मालूम हो जाय कि मैं बंगले से निकल आया हूं, पुलिस मेरा कर ही क्या सकती है। मैं कैदी नहीं हूं,गुलामी नहीं लिखाई है।
आधी रात हो गई थी। देवीदीन भी आधा घंटा पहले लौटा था और खाना खाने जा रहा था कि एक नंगे-धड़ंगे आदमी को देखकर चौंक पड़ा। रमा ने चादर सिर पर बांधा ली थी और देवीदीन को डराना चाहता था। देवीदीन ने सशंक होकर कहा, 'कौन है? '
सहसा पहचान गया और झपटकर उसका हाथ पकड़ता हुआ बोला, 'तुमने तो भैया खूब भेस बनाया है? कपड़े क्या हुए? '
रमानाथ-'तार से निकल रहा था। सब उसके कांटों में उलझकर फट गए।'
देवीदीन-'राम राम! देह में तो कांटे नहीं चुभे? '
रमानाथ-'कुछ नहीं, दो-एक खरोंचे लग गए। मैं बहुत बचाकर निकला।'
देवीदीन-'बहू की चिट्ठी मिल गई न? '
रमानाथ-'हां, उसी वक्त मिल गई थी। क्या वह भी तुम्हारे साथ थी? '
देवीदीन-'वह मेरे साथ नहीं थीं, मैं उनके साथ था। जब से तुम्हें मोटर पर आते देखा, तभी से जाने-जाने लगाए हुए थीं।'
रमानाथ-'तुमने कोई ख़त लिखा था? '
देवीदीन-'मैंने कोई ख़त-पत्तर नहीं लिखा भैया। जब वह आई तो मुझे आप ही अचंभा हुआ कि बिना जाने-बूझे कैसे आ गई। पीछे से उन्होंने बताया। वह सतरंज वाला नकसा उन्हीं ने पराग से भेजा था और इनाम भी वहीं से आया था।'
रमा की आंखें फैल गई। जालपा की चतुराई ने उसे विस्मय में डाल दिया। इसके साथ ही पराजय के भाव ने उसे कुछ खिकै कर दिया। यहां भी उसकी हार हुई! इस बुरी तरह!
बुढिया ऊपर गई हुई थी। देवीदीन ने जीने के पास जाकर कहा, 'अरे क्या करती है? बहू से कह दे। एक आदमी उनसे मिलने आया है।'
यह कहकर देवीदीन ने फिर रमा का हाथ पकड़ लिया और बोला, 'चलो,अब सरकार में तुम्हारी पेसी होगी। बहुत भागे थे। बिना वारंट के पकड़े गए। इतनी आसानी से पुलिस भी न पकड़ सकती! '
रमा का मनोल्लास क्रवित हो गया था। लज्जा से गडा जाता था। जालपा के प्रश्नों का उसके पास क्या जवाब था। जिस भय से वह भागा था, उसने अंत में उसका पीछा करके उसे परास्त ही कर दिया। वह जालपा के सामने सीधी आंखें भी तो न कर सकता था। उसने हाथ छुडा लिया और जीने के पास ठिठक गया। देवीदीन ने पूछा, 'क्यों रूक गए? '
रमा ने सिर खुजलाते हुए कहा, 'चलो, मैं आता हूं।'
बुढिया ने ऊपर ही से कहा, 'पूछो, कौन आदमी है, कहां से आया है? '
देवीदीन ने विनोद किया, 'कहता है, मैं जो कुछ कहूंगा, बहू से ही कहूंगा।'
'कोई चिट्ठी लाया है?'
'नहीं!
सन्नाटा हो गया। देवीदीन ने एक क्षण के बाद पूछा, 'कह दूं, लौट जाय? '
जालपा जीने पर आकर बोली, 'कौन आदमी है, पूछती तो हूं!'
'कहता है, बडी दूर से आया हूं!'
'है कहां?'
'यह क्या खडाहै!'
'अच्छा, बुला लो!'
रमा चादर ओढ़े, कुछ झिझकता, कुछ झेंपता, कुछ डरता, जीने पर चढ़ा। जालपा ने उसे देखते ही पहचान लिया। तुरंत दो कदम पीछे हट गई। देवीदीन वहां न होता तो वह दो कदम और आगे बढ़ी होती। उसकी आंखों में कभी इतना नशा न था, अंगों में कभी इतनी चपलता
न थी, कपोल कभी इतने न दमके थे, ह्रदय में कभी इतना मृदु कंपन न हुआ था। आज उसकी तपस्या सफल हुई!

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